“हैं शिकायतें बहुत-सी मगर, ज़ाहिर करने को अब मन नहीं करता है;
जिसकी शरारतें हंसाती हैं सबको, उससे रूठने का भी अब मन नहीं करता है।
कुछ और भी कहूं तो क्या कहूं भला, है वक़्त की ये पाबंदी कि नहीं मिलता लफ़्ज़ों का कोई सिला;
इन दूरियों में यारों से बांधी डोर छूट गई है शायद, या खफा हो गई हैं ये हवाएं मुझसे…
आज कल दोस्त की दी दुआओं का असर, मुझे खुदपर कुछ कम लगता है।”
By Urmish Singh
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